समाज

ये ही हमे उठता है और गिरता भी
ये ही हमे बताता ऐसे चलो, वैसे चलो
ये ही हमे बताता तुम्हारी ख़ुशी किसमे है
ये ही कहता की सोचो मत, बस सुनो सबकी,
अपने मन की नहीं
ये ही हमे हर एक दायरे मैं बंधता

ये बंदिशे मनना ज़रूरी है ?
क्यों नहीं हम कहते जो हमारे मन मे है?
क्यों नहीं करते जो हमे सही लगे?
क्यों हैं ये बेड़ियां जिन्हें हम तोड़ते नहीं?
क्यों नहीं हम लेते अपनी ख़ुशी का पक्ष?
क्यों हमारी खुशियां हैं  दूसरो की मोहताज?
क्यों नहीं बनाते हम अपनी ख़ुशी का रास्ता,
खुद?
क्यों?

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